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तीर पर ही नाव दहले / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
तीर पर ही नाव दहले,
यह कभी देखा न पहले !
शाम का यह सुरमई तन
पीत पड़ने क्यों लगा है !
नींद आने के समय में
देखिए जिसको, जगा है ।
भेद लेता-सा पहर यह
डाह दाँतों में दबाए,
मोगरे की साँस फूली
मोतिया जी को चुराए !
कौन चुपके से ये कहता
मौन हो चुपचाप रह ले ।
पत्तियाँ खामोश क्यों हंै,
यह हवा क्यों मौन साधे,
बोलते खग चुप लगाए
बोल पाए भी तो आधे;
क्यों उड़ा-सा रंग ऐसा
भोर के आकाश का है ?
दूर से क्यों हाँक देता
जो कि अपने पास का है।
मन को साहस भी न इतना
जोर देकर बात कह ले ।