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तीव्र नीली कोलम सिम्फ़नी-5 / दिलीप चित्रे
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मैं घर लौटा हूँ सड़ाँध मारती गली में
उसके कोने पर मैंने पान की पीक थूकी
मैंने शवयात्रा निकलते देखी
गुलाल…फूल…पेट्रोमैक्स की रोशनी…माटी की हाँडी में सुलगते कोयले
मैने शिशु का जन्म देखा
मैं बीड़ी पीता बैठा रहा
यहाँ इसी फुटपाथ पर
मैंने क़सम खाई
चलते हुए इसी आग पर
मैंने श्राप थूका
और ख़ून
मैं औरतों के साथ सोया, नशे में डूबा
मैंने सम्भोग के 84 आसन आजमाए
इस आग पर
मैं छह भाषाओं में संभोग कर सकता हूँ
मैंने थीसिस लिखी है इसी सच्चाई पर
मैं समय से पहले उम्रदार हुआ
बूढ़ा हो गया है मन
और मेरी देह उतारती हैं केंचुल आग में हर साल
इसमें से किसी भी रास्ते ने सुलगना बन्द नहीं किया है अब तक
मैंने मासूम की गीली मुस्कान देखी है
इसी आग की रोशनी में