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तीसरा हाथ / हरिवंशराय बच्चन

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एक दिन
कातर ह्रदय से,
करूण स्वर से,
और उससे भी अधिक
डब-डब दृगों से,
था कहा मैंने
कि मेरा हाथ पकड़ो
क्योंकि जीवन पंथ के अब कष्ट
एकाकी नहीं जाते सहे.

और तुम भी तो किसी से
यही कहना चाहती थी;
पंथ एकाकी
तुम्हें भी था अखरता;
एक साथी हाथ
तुमको भी किसी का
चाहिए था,
पर न मेरी तरह तुमने
वचन कातर कहे.

खैर,जीवन के
उतार-चढाव हमने
पार कर डाले बहुत-से;
अंधकार,प्रकाश
आंधी,बाढ़,वर्षा
साथ झेली;
काल के बीहड़ सफर में
एक दूजे को
सहारा और ढारस रहे.

लेकिन,
शिथिल चरणे,
अब हमें संकोच क्यों हो
मानने में,
अब शिखर ऐसा
कि हम-तुम
एक-दूजे को नहीं पर्याप्त,
कोई तीसरा ही
हाथ मेरा औ'तुम्हारा गहे.