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तुझसे कह दूँ पीड़ा अपनी / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

तुझसे कह दूँ पीड़ा अपनी
इसमें भी तो लाचारी है
अन्तर तो कभी उबलता है
कुछ भार व्यथा का कम होवे
मैं भी रोऊँ, तुम भी रोओ
ओ’ साथ हमारे जग रोवे
करूणा की धारा फूट पड़े
लहरों से हलचल हो सागर
तेरा अक्षय भण्डार बने
मेरे नयनों को यह गागर
लेकिन इससे क्या लाभ मुझे
मैं जग को व्यर्थ रूलाऊँ क्यों
अपने जो आप पिघलता है
उसको मैं व्यर्थ गलाऊँ क्यों
रोने की बारी बीतेगी
भागेगी पीड़ा भी अपने
सच वे होंगे जो आज
दिखाई देते हैं पूरे सपने
जो कहता हूँ, कह लेने दो,
तुम अपनी व्यथा न बतलाना
मेरी ही राम-कहानी सुन
मेरे अन्तर को सहलाना
यदि मैं उसका आभारी हूँ
वह भी मेरा आभारी है
तुझ से कह दूँ पीड़ा अपनी
इसमें भी तो लाचारी है