भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुझसे बिछड़ के दिल की सदा कू-ब-कू गई / खलीलुर्रहमान आज़मी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुझसे बिछड़ के दिल की सदा कू-ब-कू गई
ले आज दर्द-ए-इश्क की भी आबरू गई
 
वो रतजगे रहे न वो नींदों के काफ़िले
वो शाम-ए-मैकदा वो शब्-ए-मुश्कबू गई
 
दुनिया अजब जगह है कहीं जी बहल न जाए
तुझसे भी दूर आज तेरी आरज़ू गई

कितनी अजीब शै थी मगर ख्वाहिश-ए-विसाल
जो तेरी हो के भी न तेरे रूबरू गई

रूठी तो खूब रूठी रही हमसे फ़स्ल-ए-गुल
आई तो फिर निचोड़ के दिल का लहू गई
 
सीना लहुलहान था हर-हर कली का आज
बादे-ए-सबा चमन से बहुत सुर्खरू गई