तुझे खोजने जंगल नहीं जाऊँगा / रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
मैं तेरे लिए सुबह बन के वापस आऊँगा
मैं बनता रहूँगा तेरे लिए धरती के मौसम
मैं बनूँगा तेरे लिए दोपहर और शाम
मैं खोजता रहूँगा तुझे धूप की किरणों में
मैं जानता हूँ तू यही कहीं है इसी धरती में
तू मेरे शहर की हवा में घुली हुई
मेरे शहर की चहल-पहल में मिली हुई
मैं सब में तुझे तलाश करूँगा
तेरा न मिलना मेरे दुःख का कारण नहीं
तेरा न मिलना जीवन का सफ़र है
मैं जानता हूँ तू यही कही मिल जाएगी
शहर में मेरे काम के दौरान आते-जाते
मैं तुझे खोजने जंगल नहीं जाऊँगा
मंदिरों और ध्यान केन्द्रों पर भी नहीं
हिल-स्टेशनों और बीच पर नहीं जाऊँगा
मैं तुझे खोजते-खोजते सब बन जाऊँगा
और आख़िर में ख़ुद में ही खोजूँगा तुझे
कितना सुंदर होगा उन दिनों का मौसम
जब सब मुझ में होगा और तू सब में होगी