भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुझे भी जांचते अपना भी इम्तिहाँ करते / मज़हर इमाम
Kavita Kosh से
तुझे भी जांचते अपना भी इम्तिहाँ करते
कीं चराग़ जलाते कहीं धुआँ करते
कई थे जल्वा-ए-नायाब तुझ से पहले भी
किस आसरे पे तिरा नक़्श जावेदाँ करते
सफ़ीना डूब रहा था तो क्यूँ न याद आया
तिरी तलब तिरे अरमाँ को बादबाँ करते
मोहब्बत भी तिरी है शिकायते भी तिरी
यक़ीन तुझ पे न होता तो क्यूँ गुमाँ करते
हवा थी तेज़ जलाते रहे दिलों में चराग़
कटी है उम्र लहू अपना राएगाँ करते
वो बे-जहज का सफ़र था सवाद-ए-शाम न सुब्ह
कहाँ पे रूकते कहाँ याद-ए-रफ़्तगाँ करते
दयार-ए-ख़्वाब में ठहरे हिसार-ए-गुल में रहे
मगर ये ग़म ही रहा ख़ुद को शादमाँ करते