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तुझ से मिल कर भी कुछ ख़फ़ा हैं हम / फ़राज़
Kavita Kosh से
तुझ से मिल कर भी कुछ ख़फ़ा<ref>नाराज़</ref>हैं हम
बेमुरव्वत<ref>निष्ठुर</ref>नहीं तो क्या हैं हम
हम ग़मे-क़ारवाँ<ref>यात्री-दल का दु:ख</ref>में बैठे थे
लोग समझे शिकस्ता-पा<ref>थके हुए</ref>हैं हम
इस तरह से हमें रक़ीब<ref>प्रतिद्वन्द्वी</ref>मिले
जैसे मुद्दत<ref>बहुत समय </ref>के आश्ना <ref>परिचित</ref>हैं हम
राख हैं हम अगर ये आग बुझी
जुज़ ग़मे-दोस्त<ref>मित्र के दु:ख के अतिरिक्त</ref>और क्या हैं हम
ख़ुद को सुनते हैं इस तरह जैसे
वक़्त की आख़िरी सदा<ref> आवाज़</ref>हैं हम
क्यों ज़माने को दें ‘फ़राज़’ इल्ज़ाम<ref>दोष</ref>
वो नहीं हैं तो बे-वफ़ा<ref>दग़ाबाज़,कृतघ्न</ref>हैं हम
शब्दार्थ
<references/>