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तुझ हुस्ऩ ने दिया है बहार आरसी के तईं / वली दक्कनी
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तुझ हुस्न ने दिया है बहार आरसी के तईं
बख़्शा है ख़ाल-ओ-ख़त ने निगार आरसी के तईं
रौशन है बात ये कि अवल सादालोह थी
बख़्शे हैं उसके मूँह सूँ सिंघार आरसी के तईं
ख़ूबी मिनीं अवल सूँ हुई है दहचंद तर
जब सूँ किया सनम ने दो-चार आरसी के तईं
हैरत की अंजुमन में वो हैरत फ़ज़ा ने जा
यक दीद में किया है शिकार आरसी के तईं
किस ख़त के पेच-ओ-तब कूँ दिल में रखे कि आज
ज्यूँ आब जू नहीं है क़रार आरसी के तईं
हैरत सूँ आँख अपस की न मूँदे हश्र तक
यक पल तो उस निज़क जो गुज़ार आरसी के तईं
गर उसके देखने की 'वली' आरज़ू है तुझ
बेगी अपस के दिल को सँवार आरसी के तईं