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तुड़क-तुड़क तुड़ंग तूं / ओम पुरोहित ‘कागद’
Kavita Kosh से
सयाळै री रातां
ओढूं सिरख
बिछाऊं पथरणों
गुद्दी हेठै सोरफ सारु
धरूं तकियो
ढाबूं पौ री ठारी!
आधी सी रात
कानां में पड़ै
पींजणैं री आवाज
तुड़क-तुड़क तुड़ंग तूं
अचाणचक खुलै आंख
साम्हीं पण कीं नीं
म्हैं सिरख-पथरणैं
तकियै री रूई सम्भाळूं
हाल ठीक ठाक है
आंख मीचूं
पाछी नींद उतरै
नींद में आवै
हेला उपाड़तो
कमरद्दीन पिंजारो
रूई पिंजाल्यो!
रूई पिंजाल्यो!!
म्हैं उठ'र बैठूं
यादां में फिरै पिंजारो
गळ्यां सूं कद होग्यो
साव अदीठ
सोचूं
कांई होयो होसी
कमरद्दीन रो
उण री टाबरी रो
कळां पछै
म्हारै तो सोरफ है
कंवळा भरै कळां
सिरख-पथरणां-तकिया
बठै कियां
भरीजतो होसी पेट!