भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुमको निहरता हूँ सुबह से ऋतम्बरा / दुष्यंत कुमार
Kavita Kosh से
तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा
अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा
ख़रगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख़्वाब
फिरता है चाँदनी में कोई सच डरा—डरा
पौधे झुलस गए हैं मगर एक बात है
मेरी नज़र में अब भी चमन है हरा—भरा
लम्बी सुरंग-से है तेरी ज़िन्दगी तो बोल
मैं जिस जगह खड़ा हूँ वहाँ है कोई सिरा
माथे पे हाथ रख के बहुत सोचते हो तुम
गंगा क़सम बताओ हमें कया है माजरा