भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुमको भी है गिला फ़लके-दूँ-शआर का / मेला राम 'वफ़ा'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


तुमको भी है गिला फ़लके-दूँ-शआर का
आख़िर पड़ा न सब्र किसी बे-क़रार का

मुमकिन न था मुक़ाबिला तमकीने-यार का
मुश्किल ये है कि दिल ही नहीं इख़्तियार का

दिल का भी खूं-बहा न मिला, जान भी गई
एहसान भी रहा निगह-ए-शर्मसार का

आख़िर हरीफ़े-इश्क़ बना, हर शरीके ग़म
सच है कि अब ज़माना नहीं ऐतबार का

आयेगा चैन मिल के पसे-मर्ग ख़ाक में
जायेगा जान ले के मरज़ इंतिज़ार का

नफ़रत से अर्ज़-शौक़ पे मुंह फेरते नहीं
दिल तोड़ते नहीं किसी उम्मीदवार का

उस रुख़ की ताज़गी है मिरी आहे-सर्द से
जैसे असर गुलों पे नसीमे-बहार का

कैफ़े-निशाते-पुरसिशे-एहवाल, अलअमां
है अर्श पर दिमाग़ दिले-बेक़रार का

मौक़ूफ़ कुछ मुझी पे फ़क़त ऐ 'वफ़ा' नहीं
दिल दांदा इक जहां है मिरे दिले-शिकार का।