तुमने जो दिए थे गुलाब के फूल,
आज भी रक्खे हैं मेरी किताबों में,
गंध-हीन .
तुमने जो भेजे थे कवितानुमा संकेत,
आज भी रक्खे हैं मेरी अलमारी में,
अर्थ-हीन .
तुमने जो बोले थे अनजाने नेह-बोल,
आज भी रक्खे हैं मन के तहखानों में,
शब्द-हीन .
और अब ये मुझसे गंध, अर्थ और शब्द मांगते हैं ...