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तुमने ठीक ही कहा था / अनिरुद्ध प्रसाद विमल
Kavita Kosh से
अरी, ओ साँवरी।
तुम्हारा इस तरह रुठ जाना
और मेरे मनाने पर मान जाना
लाख परेशानियों के बीच भी
आज तक
मुझे जिन्दा रख रही है
बहुत दिन बीते
न जाने कब से मैंने
उस दूकान पर जाना छोड़ दिया है
जिसकी चौखटों में
तुम्हारे सहमें पावों की आवाज
अब तक भी कैद है
देखो री साँवरी,
नजरों के करीब हो रहे
आकाश और धरती का मिलन
दोनों का परस्पर आलिंगन
अब मेरे प्रेम संबंधों को
फिर से
आन्दोलित करने लगे हैं।
‘मंजर’ तुमने ठीक ही कहा था
कि प्रेम की दहलीज पर
जलते चिराग
कभी नहीं बूझते।
(कवि का अंतरंग मित्र)