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तुमने देखा है कभी जिस्म को आईने में / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

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तुमने देखा है कभी जिस्म को आईने में
कितनी ख़ुशरंग नज़र आती हो इक ज़ीने में
क्या तुमने खुद ही अपना बदन तराशा है
जिसे भी देखता हूँ वही शख़्स प्यासा है
क़बाएँ फूल कतरते हैं देख कर तुमको
मुझे भी रक्स-सा होता है चाह कर तुमको
मेरी बातों पे कभी ग़ौर किया है तुमने
अपने जलते हुए होंठों को छुआ है तुमने
जैसे पंखुरियाँ लिपट रहती हैं गुलाबों से
ब-रंग-ए-ऊद-सी आती है महक ख़्वाबों से
उंगलियाँ रखी हैं तुमने कभी गर्दन पर
जैसे आग बरस जाए खिले गुलशन पर
तुमने देखी है कभी अपनी कमर की वादी
कितनी मासूम-सी लगती है वो सीधी-सादी
अपने गालों को कभी आह! मलके देखा है
क़ाकूल-ए-स्याह की मानंद चलके देखा है
तुम अपने ज़ुल्फ़ के साए में कभी ठहरी हो
उस सुनसान-सी राहों से कभी गुज़री हो
मैंने माना कि तुम्हें तितलियों-सी आदत है
मैंने जाना कि तुम्हें रंग-ओ-बू से निस्बत है
मगर ये ठीक नहीं मुझको उम्मीदवार करो
दिल-ए-मुफ़लिस को कुछ और बेक़रार करो
तुमने देखा है कभी नूर भरी बांहों को
जब भी जी चाहे रोक लें ये राहों को
और पल भर में उजाला सिमट के रह जाए
जाते-जाते ही मगर शाम कोई कह जाए
अपनी पलकों को ज़रा मुंद कर खोले रखना
कहीं भी रहना नज़र मुझ पर हौले रखना
नर्गिसी आँखें दुनिया में लाज़वाल हैं अब
जवाब देती हुई दिलनशीं सवाल हैं अब
मैंने सोचा था कभी खुद को पाऊँ इनमें
मैंने चाहा था कभी डूब ही जाऊँ इनमें
कि गर्क़ हो जाए आरज़ू का हर लम्हा
तुम्हारी याद ने रहने दिया कहाँ तन्हा
अब हसीं फ़िक़्र है औ’ चाहतों का मंज़र है
फिर वही ग़म है मगर पहले से बेहतर है
जिस तरह रौशनी देता है आफ़ताब कोई
तेरे वजूद से रौशन है मेरा बाब कोई
अब ये ज़ाहिर है कि तुम मेरे मुक़द्दर में नहीं
मेरी आँख के ठहरे हुए मंज़र में नहीं
फिर भी मासूम निगाहों से तुझे चूमा है
दफ़्फ़तन चाँदनी रातों में उठके झूमा है
अब मेरी ज़िंदगी लुटती है फ़कीरों की तरह
जैसे मिट जाए कोई नाम लकीरों की तरह
अब कोई ग़म गिला शिकवा-ओ-शिकायत ही नहीं
कह न पाता हूँ कि अब मुझको मुहब्बत ही नहीं
सुनो, मेरे ख़्वाब के ख़ूनों का गुनहगार हो तुम
सुनो, ये सच है वफ़ा मेरी, मेरे प्यार हो तुम