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तुमने मेरा शरदेन्दु भाल फिर हौले हौले सहलाया / प्रेम नारायण 'पंकिल'

तुमने मेरा शरदेन्दु भाल फिर हौले हौले सहलाया।
”शीतल जल स्नात करो प्रियंवदे” बोले, “केलि-शिथिल काया।
उठ-उठ गिरतीं बोझिल-बोझिल सी तेरी निद्रालस पलकें।
श्लथ कंचुकि-बंधित उरज-श्रृंग को ढाँक रहीं बिखरी अलकें।
इस केलि-शून्य शैय्या की करूणा पर हे प्राणप्रिये! रो लो।
रजनी भर रम्भा बनी रही वासर में प्राण! सिया हो लो।“
आ पुनः प्रभाती गा विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥94॥