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तुमने सोचा था ज़वाल-ए-ज़ीस्त से डर जाऊँगा / ज़ाहिद अबरोल
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तुम ने सोचा था ज़वाल-ए-ज़ीस्त से डर जाऊंगा
अनसुनी इक दास्तां बन कर यूं ही मर जाऊंगा
एक ख़ुशबू हूं सिमटना मेरे बस में भी नहीं
तेरे दिल तक आ गया हूं तो बिखर कर जाऊंगा
ढूंढ लेना कोई भी तस्वीर अपने काम की
मैं तो कैनवस को फ़क़त रंगों से ही भर जाऊंगा
मुझको पानी, मेरे पाओं को हवा अब दो न दो
चन्द लम्हों का तो मेहमां हूं अभी झर जाऊंगा
देख आया हूं मैं हर इक दोस्त की दरियादिली
हर भरम को तोड़ कर अब अपने ही घर जाऊंगा
मैं ने “ज़ाहिद” ख़ुद से इक अहद-ए-सफ़र भी कर लिया
मंज़िलों तक तय हुए रस्तों से हट कर जाऊंगा
शब्दार्थ
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