भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुमसे होते दूर आँखें, भैरवी-सी / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
तुमसे होते दूर आँखें, भैरवी-सी
और होते पास होतीं, देश राग।
रक्त में आसव प्रवाहित दौड़-धूप
जिसमें बिम्बित हैं तुम्हारा कमल रूप
चेतना फेनिल बनी, उन्माद भरती
मन मनाता रोम-वन में जबकि फाग।
देवता की सृष्टि है यह, योग जागे
यह नहीं समझेंगे वे सब, जो अभागे
राज, जो कहते कुसुम, गुनगुन सुरों में
रूप कोमल, गंध रसमय, प्रीत जाग।
प्राण ! प्रण को ही निभाओ संगिनी बन
आज मैं हूँ मेघ-सा, तुम दामिनी बन
अब सुवासित आज सारा विश्व हो ले
तुम बनो समिधा, बनूँ मैं हविश-आग।