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तुम्म्हारी आँच / अशोक कुमार शुक्ला

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जीवन की
सर्द और स्याह रातों में
भटकते भटकते आ पहुँचा था
तुम तक

उष्णता की चाह में
और तुम्हारी ऑच
जैसे धीरे धीरे समा रही है मुझमें
ठीक उसी तरह

जैसे धीमी ऑच पर
रखा हुआ दूध
जो समय के साथ
हौले हौले अपने अंदर
समेट लेता है सारे ताप को

लेकिन उबलता नहीं
बस भाप बनकर
उडता रहता है तब तक
जब तक अपना
मृदुल अस्थित्व मिटा नहीं देता

और बन जाता है
ठेास और कठोर
कुछ ऐसे ही सिमट रहा हूँ मैं
लगातार हर पल
शायद ठोस और कठोर

होने तक या
उसके भी बाद
ऑच से जलकर
राख होने तक ?