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तुम्हारा क्या दोष था / सुदर्शन रत्नाकर

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निर्भया, तुम्हारा क्या दोष था
यही कि तुम लड़की थी
ज़माना देखता रहा और

दरिन्दे तुम्हारी अस्मत लूटते रहे।
तुम अख़बारों की सुर्ख़ियों में आई
जिजीविषा लिए कई दिन
मौत से जूझती रही।

पंख टूट गए थे पर
उड़ने की चाह थी।
तुम डरी नहीं
तभी तो निर्भया बनी

आवाज़ खो गई थी, पर
आँखों में आस थी न्याय की
जिसे जीकर देखना चाहती थी
दुनिया को दिखाना चाहती थी

अन्यायियों को सज़ा दिलाना चाहती थी।
पर निर्भया तुम चली गई और
अन्याय के प्रति लड़ने की
ज़माने को जगाने की राह दिखा गई।
तुम नारी की युग पीड़ा बन गई

पर निर्भया यह तुम्हारे साथ ही कहाँ हुआ है
युगों से चली आ रही नारी पीड़ा का अंत नहीं
देवों ने भी किया है उसे शर्मसार
नारी का किया है तिरस्कार।

अहिल्या ने सहा अभिशाप का दर्द
और इन्द्र स्वतन्त्र विचरते रहे
गौतम ने भी कहाँ सोचा गहरा।

सीता की हुई अग्नि परीक्षा
द्रौपदी बनी साँझी पत्नी
उर्मिला ने की विरह तपस्या।
पर निर्भया तुम्हारी उठती क्षीण आवाज़ भी
जागृत कर गई

चुप नहीं बैठो तो बहरे कानों में भी आवाज़
गूँजने लगती है
बिन माँगे कुछ नहीं मिलता
अन्याय सहो तो अन्याय और है होता।
यह समय की माँग है

गर्त से उठना है स्वयं
और स्वयं बनानी है पहचान
यही तो तुम बता गई
बनी दामिनी और प्रकाश फैला गई।

अपने सपनों को लुटने नहीं दो
बेचारगी का दामन छोड़ दो
संकल्प दृढ़ हो तो होता है पूरा
जीवन पूरा जीओ, नहीं अधूरा।