तुम्हारा घर / सुदर्शन प्रियदर्शिनी
हल्की -हल्की
धुंध में
छिपे हुए
ये साफ़ -सुथरे
सभ्यता जनित
ऊँचे -ऊँचे घर
आस पास पंक्ति-बध
चीड -खुर्मानी
और
सेबों के दरख्त ..
हरी हरी बनावटी
कालीन की तरह
बिछी हुई डूब
करीने से लगी हुई
फूलों की क्यारियाँ
छोटे-छोटे जंगलों के
सीमित घेरे में
उठी हुई निस्तब्ध
फूलों की बेलें ..
किसी द्र्श्य-जनित
चित्र की मूर्ति का
आभास देते हैं …
ऐसे में
सूदूर काश्मीर में
बसे- तुम्हारे
दो कमरों वाले
छोटे से घर-
बाहर इसी तरह
हूबहू उट्ठा हुआ
कोहरा -
हरी हरी
बिछी हुई दूब
बेतरतीब पेड़ों की
कतारें .-
स्वतंत्र उगी हुई
फूलों की लतरें
मेरे मानस में
उभर आती हैं …
महकता हुआ
तुम्हारी रसोई से
उठता
सुवास भरा धुयाँ -
एक चहकती हुई सी
तुम्हारी साभार भरी- आवाज
आज भी मेरे जहन में
कहीं मुझे अपनेपन से
उपर नीचे तक
सरोबार कर जाती है …
मेरे अंदर
प्रकृति का एक
अनछुया सा
सोंदर्य जनित सोहार्द
उड़ेल जाती है