तुम्हारा दिल अगर हम सीं फिरा है / शाह मुबारक 'आबरू'
तुम्हारा दिल अगर हम सीं फिरा है
तो बेहतर है हमारा भी ख़ुदा है.
हमारी कुछ नहीं तक़सीर लेकिन
तुम्हीं कूँ सब कहेंगे बे-वफ़ा है.
हुए हो इस क़दर बे-ज़ार हम सीं
कहो हम नीं तुम्हारा क्या किया है.
किसू सीं मत मिलो माशूक़ हो कर
ग़लत है हम नीं तुम सीं कब कहा है.
वो झूठा है कहा है जिन नीं तुम से
मिलो जिस सीं तुम्हारा दिल मिला है.
उसे यूँ मना करना पहुँचता है
तुम्हारे साथ जिस का दिल लगा है.
फ़क़त इक दोस्ती है हम को तुम सीं
हमें यूँ मना करना कब रवा है.
फ़क़त इख़्लास में इता अकड़ना
सितम-गर बे-वफ़ा ये क्या अदा है.
मगर दीन-ए-मुरव्वत में तुम्हारे
यही कुछ दोस्त-दारी की जज़ा है.
तुम्हारी इक लहर लुत्फ़ ओ करम की
हमारे दर्द कूँ दिल के दवा है.
ग़रीबों की मोहब्बत की अगर क़द्र
अपस के दिल में बूझो तो भला है.
वगरना पीत आख़िर की हमारी
सुनो समझो के जान-ए-मुद्दआ है.
तुम्हारे साथ मैं क़दमों लगा हूँ
मुझे यूँ टाल देना कब बजा है.
फ़क़त सय्याद दिल ख़ूब-सूरती नईं
करम है मेहर-बानी है वफ़ा है.
अबस बे-दिल करो मत ‘आबरू’ को
मुसाफ़िर है शिकस्ता है गदा है.