तुम्हारा नाम / सुशीला पुरी
तुम्हारा नाम
पैदा करता है
नज़रों में ठहराव
किसी भी गणित से परे
बार-बार तुम्हारा नाम
क्यूँ टकराता है मुझसे ?
कभी गली के किसी मोड़ पर
चौराहे की चहल-पहल में
या राह चलते किसी घर पर
ठिठक जाती हैं नजरें
विमुग्ध हो जाती हूँ मैं
हथेली पर बहुधा
लिखती हूँ तुम्हें
छू लेती हूँ हौले से
भर लेती हूँ ऊर्जा
अक्सर किताबों में
लिख देती हूँ तुम्हें
घर की दीवारों पर
बिना लिखे ही दिखता है
तुम्हारा नाम
तुम्हारे नाम के नीचे
लिख देती हूँ अपना नाम
और मेरी संवेदना पा लेती है
सामीप्य का एहसास
तुम्हारा नाम लिख कर
सुन्दर अल्पना में छुपा देती हूँ
और तुम्हारी उपस्थिति
भर देती है प्राणों में उल्लास
तुम्हारा नाम
मानो पूरी परिधि वाला कवच
मैं बड़ी निश्चिंत हूँ उसके भीतर ।