तुम्हारा पास ना होना / शशांक मिश्रा 'सफ़ीर'
तुम्हारा पास ना होना,
अब दर्द नहीं देता मुझे।
अलग अलग ही सही,
समेट लेता हूँ तुम्हे यादों में।
किसी किताब के बिखरे
पन्नों की तरह समेत कर,
क्रम तो नहीं दे पाता हूँ तुम्हें।
पर तुम्हें सँजो लेने का सुख होता है।
अक्सर छोड़ आता हूँ एक गीत,
तुम्हारी यादों के सिरहाने।
कभी पढ़ो तो रख देना उनमें
थोड़ी-सी गन्ध अपनी।
तुम ना तो मिले और ना ही कह पाया
की बदस्तूर जारी है तुम्हें पाने की कोशिश।
तुम किसी मरूथल-सी विस्तृत हो
या मेरे भीतर तुम जितनी?
नदी-सी तरलता है तुममें
या किसी बारिश जितनी?
कई प्रश्न हैं जिनके चौसर पर
हर बार हारा हूँ मैं।
मेरे गीतों ने भी बगावत की है,
उन्हें रचे जाने पर तुम्हारे बिना।
मैं और तुम किसी किताब के पहले
और आखिरी पन्नें हैं।
जो न तो पास हैं, न ही एक।
इस पास न होने के बीच खाली जगह में,
अक्सर ढूंढता हूँ अपना स्थान।