भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारा मौन / शिवनारायण जौहरी 'विमल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं तुम्हारा मौन पढ़ना चाहता हूँ
अशरीरी, को आकार देकर
परिधान पहिनाना चाहता हूँ
सागर से मणि नभ से
तारे तोड़ लाना चाहता हूँ
वत्स तुम अल्पज्ञ हो
जिसे तुम मौन कहते हो
वह मुखर है अनहद नाद में
गूंगी थी जब शून्य से पैदा हुई
अब परेशान है दुनिया मेरे
मुखर के कोहराम से
फैला अनंत आकाश में
जानता कोई नही
इस मौन में
क्या कितना छिपा है भेद
मनीषियों ने ग्रंथ लिख डाले
मगर भेद खुल पाए नहीं
वह जब चाहता लिख देता
अजंता एलोरा की कहानी
भेज देता है आइस्टीन को
नए भेदो का पिटारा साथ लेकर॥