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तुम्हारा वक़्त / अरुण देव

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कुछ चीज़ें अभी भी रह गई हैं
मटमैली नदी की धार के पत्तों पर रखा दीप, जलता बुझता फिर भी जलता हुआ
रह गईं हैं छत पर ओस की बून्दें
बून्दों में चमकता जल
जल से बह निकला सूरज का सुनहलापन

पलकें भारी हैं तुम्हारी उनपर आशंकाओं के मेघ हैं
तुम्हारी देह का पानी चढ़ रहा है मेरे ऊपर

पंखे से जलने की गन्ध आ रही है
वोल्टेज ज़्यादा होने से शायद फुँक गया है तार

मेरे अन्दर कुछ गिरने की आवाज़ शायद तुम तक आई हो
कामना, प्रेम, वासना क्या नाम दूँ

उमस और गन्ध से भर गया है कमरा
खिड़की खोलता हूँ, खिड़की के उस पार बादल का एक टुकड़ा
है
बची रह गई है अब भी उसमे रुई

तनी हुई रस्सी पर पहिए के सहारे दौड़ने का यह वक़्त है
यह वक़्त नही गुलाब का यह वक़्त है मशरूम का
कि उसे निगल जाओ
यह फूलों के अपनी डालियों पर खिलने का वक़्त नहीं
यह चूजों के स्वाभाविक मृत्यु का वक़्त नहीं
यह किसी स्त्री-पुरुष के अकुंठ प्रेम का वक़्त नहीं
यह गान का वक़्त नहीं

यह शाम के धुन्धलके और सुबह के कुहरे का वक़्त है
यह वक़्त कौंधते दृश्यों का है, यह वक़्त चमकती रातो का
यह शोर, शहर और शरीर का शातिराना वक़्त है

ठेले पर एक कुम्हलाया हुआ लड़का बेच रहा है कुछ ताज़ी सब्ज़ियाँ
गोभी, मटर, लौकी, करेला
बची रह गई हैं सब्ज़ियाँ उनका हरा रंग, उनका कसैलापन, उनकी नमी

मैं अगर गिर जाऊँ प्रेम में कि घिर जाऊँ वासना में
कि यह तुम्हारे उठने का वक़्त है ।