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तुम्हारा व्यक्तित्व है कितना प्रबल ! / विजयदान देथा 'बिज्‍जी'

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ऊषे
तुम्हारे व्यक्त्वि है कितना प्रबल!

अयि! कुंकुम सरिते!
चन्द्रलोक के गिरि-शिखरों से
तारक दीपों के पथ उतर-उतर
तम के अपरिमित अनन्त
सघन श्यामल सागर को कर पार
प्रातः आती हो अम्बर पर!

तब कुछ ही क्षण में
गायन स्वर में कर कुल-कुल
ज्योति- सिंधु मंे मिलकर
निरन्तर तीव्र गति से उस में
बहती रहती हो पल-पल!

दो-दो सागर में बहकर भी
तुम नष्ट नहीं हो पाती!
तब ही तो साँझ पड़े
देखा करते मानव-नयन
अनन्त सिंधु के प्राची तट पर
तुम बाहर निकल आती हो सत्वर
वैसी ही अरूणिम आभा लेकर!
जब देव-सरिता जाह्नवी भी
अनन्त सिन्धु में मिलकर
उसी क्षण मिट जाती स्वयं
गहल तल में द्रुत लीन हो जाता
उसके गतिमय जीवन का गायन कल-कल!

ऊषे!
तुम्हारा व्यक्तित्व है कितना प्रबल?
द्विसिन्धु में बहकर भी वह नष्ट नहीं हो पाता!