भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारी आँखें कहती हैं रुको / अहमेत इल्कान

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किस किस्म की विदाई है यह, किस क़िस्म की अलविदा
तुम्हारी आँखें कहती हैं रुको, तुम्हारे अधर कहते हैं प्रस्थान
तुम्हारी छवि है कुंजियाँ, तुम्हारी आँखे ताले
तुम्हारी बाँहें कहती हैं खुलो, तुम्हारे अधर कहते हैं प्रस्थान ।

बिछोह है वह नदी जो नहीं पलटती उद्गम की ओर
अकेलापन है एक उजड़ा वीरान नगर
कौन जाने कितना-कितना प्रेम मिल गया खाक़ में
तुम्हारी आँखें कहती हैं रुको, तुम्हारे अधर कहते हैं प्रस्थान ।

यदि मैं चला गया तो होगा नहीं पुनरागमन
यदि मैंने कह दी मन की बात दु:खता रहेगा दिल
तुम्हें अब तक समझ सका न मैं, हो जाऊँगा पागल
तुम्हारी आँखें कहती हैं रुको, तुम्हारे अधर कहते हैं प्रस्थान ।

क्या दीवारों पर चस्पा कर दिए गए हमारे चित्र ?
क्या सबके लिए हमारा नाम हो गया अजूबा ?
कहो, किस जतन से गुजर रही हैं पगलायी रातें ?
स्मृतियाँ कहती हैं रुको, तुम्हारे अधर कहते हैं प्रस्थान ।

यह क़िस्सा भी ख़त्म हो जाएगा बहुत जल्द
प्रेम ने तहस-नहस कर दिया सारा संकोच, सब मान
फिर हिजाज़* से सिसकियाँ भरेंगे सुर
गीत कहते हैं रुको, तुम्हारे अधर कहते हैं प्रस्थान ।



  • जगह / क्षेत्र का नाम

अँग्रेज़ी से अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह