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तुम्हारी आँखें / उमा शंकर सिंह परमार
Kavita Kosh से
तुम्हारी आँखें
अगर सपनों मे जीना चाहतीं हैं
तो शौक से जिएँ
अब वतन आज़ाद है
तुम्हारी आँखें
अगर रचना चाहतीं हैं
कुछ नये सपने
तो पहले
सपनों और आज़ादी के बीच
बढ़े हुए फ़ासले को
समझना ज़रूरी है
तुम्हारी आंखें
अगर देखना चाहतीं हैं
ख़ूबसूरत सपने
तो अपनी आँखों से कह दो
पहले इस दुनिया को ख़ूबसूरत बनाएँ
मेरे साथी ! अब तुम समझ गए होंगे
आज़ादी सपने का नाम नहीं है
आज़ादी आदमी के
मजबूत इरादों से
लिखी गई ज़िन्दा भाषा है
जो न सपने देखती है
न सपने रचती है
न सपने जीती है
ज़िन्दा रहने के लिए अक्सर
बेचैन कविता-सी
बदलाव की ज़िद करती है