तुम्हारी आँखों में कोई सम्वेदनाएँ नहीं
न सत्य तुम्हारी बातों में
न ही आत्मा तुम्हारे भीतर
मज़बूत हो जा, ओ हृदय, पूरी तरह
सृष्टि में कोई सृष्टा नहीं,
न ही प्रार्थनाओं में कोई अर्थवत्ता !
(1836)
तुम्हारी आँखों में कोई सम्वेदनाएँ नहीं
न सत्य तुम्हारी बातों में
न ही आत्मा तुम्हारे भीतर
मज़बूत हो जा, ओ हृदय, पूरी तरह
सृष्टि में कोई सृष्टा नहीं,
न ही प्रार्थनाओं में कोई अर्थवत्ता !
(1836)