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तुम्हारी आँख के विलाप की आंच में / दयानन्द पाण्डेय

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यह तुम्हारी आंखों का विलाप है
या मैं हूं

इस विलाप की नदी में जाने कितनी नदियां
सूख गई हैं
सूख गई है तुम्हारी आंखों का विलाप देख कर

इन सूखी आंखों में
बसा तुम्हारा मायका
मायके की याद
और
तुम्हारी मां
तुम्हारा बचपन जैसे छलक आया है
दर्द जैसे उमड़ आया है
ऐसे जैसे यह आंखें भी प्रसव पीड़ा में हों

यह आंख है
या दर्द का कोई दिया
कि आंसू तेल बन गए हैं
और पुतली बाती
समूची आंख जल रही है दिया बन कर

हुमक-हुमक कर
ठहर-ठहर कर
दुःख के ऐसे दर्पण में दोहरी हुई जाती हैं ये आंखें
गोया इन आंखों से कलेजा बाहर आ जाएगा

चीड़ के पेड़ जैसी
चांदनी को चीरती
पर्वत सी पीर लिए
यह तुम्हारी आंखें हैं
या कोई जांच एजेंसी
कि सब को सब कुछ बता देती हैं

तुम्हारी आंखों का यह एक नया सौंदर्य है
कि तुम्हारी आंख अब सिर्फ़ आंख नहीं
सी बी आई है
सब को सब कुछ बताती हुई

गनीमत यही है कि
मैं भी इन आंखों में बसा हूं
इस तुम्हारी आंख के नगर का
एक निवासी मैं भी हूं
निवासी हूं कि प्रवासी
तुम्हारी आंखें नहीं बतातीं किसी को
मुझे भी नहीं

तुम्हारी आंख मेरा नगर है
इस नगर की नदी में नहाया हुआ मैं
तुम्हारे दर्द का दीपदान मांगता हूं

उठो और दे दो
यह दीपदान
दर्द से मुक्ति लो

तुम्हारी आंख के विलाप की आंच
अब सहन नहीं होती
इस दर्द में मैं भी छटपटाता हूं

[28 नवंबर, 2014]