भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारी ओर / अंतर्यात्रा / परंतप मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कहाँ हो तुम मेरे प्रभु !
क्या न मिल सकोगे इस जीवन में
पर मेरा प्रयास चलता रहेगा, सतत
बढ़ रहा हूँ हर पग तुम्हारी ओर
तुम्हारी उपस्थिति को महसूस करता हूँ

मुझे आभास है तुम्हारी अनुभूति का
अनकही सभी बातें मैंने सुनी है
मानसिक लगाव की स्थितियों में
अहसास की प्रधानता होती है
शब्दों की आवश्यकता कम ही पड़ती है।

मेरे द्वारा कभी-कभी लिखे गए शब्द
भावनाएँ हैं जो नदी में बह जाती हैं
मैं उन्हें रोक न सकूँगा
यह तो उनका स्वाभाविक गुण है।

जैसे नदी रास्तों का परवाह नहीं करती
वह बहती जाती है सागर की ओर
जहाँ वह स्वयम् को विलीन कर सके
अपने अस्तित्व को मिटा सके।

यही तो है उसके जीवन का उत्सर्ग
स्व को नष्ट कर देने का आनन्द
उसकी एक नयी पहचान
सदा के लिए नदी नाम का त्याग
समुद्र ही हो गयी वह
अब उसे भी सागर ही कहेंगे।

वे एक हो गए
एकता का सुखद अनुभव
मार्ग की सभी पीड़ाओं को समाप्त कर देता है
मैंने भी हार नहीं मानी है
मैं प्रयासरत हूँ अपने पथ पर।

एक दिन मैं तुम्हे अवश्य पा लूँगा
स्व का अंत कर तुममें ही समा जाना है,
तुम्हारी उपस्थिति ही मेरा अस्तित्व है
सदा के लिए अपने आपको मिटा देना है
जहाँ हमें शब्दों की आवश्यकता ही न हो
मैं और तुम अब हम बन गए हैं

केवल एक,अब दो का संबोधन नहीं
तभी तो गंगा-सागर एक तीर्थ बनता है