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तुम्हारी ख़ुशबू से महक उठा है मन/ विनय प्रजापति 'नज़र'
Kavita Kosh से
लेखन वर्ष: 2004
तुम्हारी ख़ुशबू से महक उठा है मन
तुम्हारे तस्व्वुर से भर आये नयन
बरखा की मखमली फुहार से जी तर है
धीरे-धीरे बुझ रही है दर्द की सूजन
लहू फिर ज़ख़्मे-जिगर से बहा है
दर्द तुम्हारा दिल में मेहमान रहा है
सर्द है बरसों से यह ख़िज़ाँ का मौसम
ज़र्द पत्तों में खो गया है कहीं गुलशन
बहार की नर्म धूप कहीं खो गयी है
मानूस वह चाँदनी किसी छत पे सो गयी है
यह उदास फ़ज़िर भी कितनी तवील है
दिखता नहीं दूर तक उफ़क़ का रोगन
तुमको पहली नज़र से चाहा दिलो-जाँ से
हर दुआ में मैंने तुमको माँगा आसमाँ से
मेरी मंज़िल मेरी मोहब्बत हो तुम
कैसे भी तुम मेरी बनो, जुड़ जाये बन्धन