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तुम्हारी ज़बान कैंची की तरह चलती है / मृदुला शुक्ला

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कुछ डोरियाँ हैं जो बांधे रखती है
उसके सपनो को
कुछ बारीक से रेशे
उसकी खिलखिलाहट को

बचपन बंधा रहता है नैहर से
यौवन चुनरी
आशाये मांग से
मुस्कुराहट कोख से

पंख हैं तो सही
मगर उड़ाने बाँध दी जाते है
नोच दिए जाने के भय

सुबहें गरम पराठों से
शामें तुलसी चौरों पे जलते दिए से
दुपहरी थोड़ी ढीली सी लपेटी होती
आँगन में सूखते बड़ियों से
मर्तबानो में मुस्कुराते आचारों
जाने क्या है जो बांधे रखता है उसे देहरी से


तुम यह बंधन काटती क्यूँ नहीं?
सुना है तुम्हारी जुबान कैंची की तरह चलती है!