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तुम्हारी देह जितना / अमरजीत कौंके
Kavita Kosh से
देखे बहुत मैंने
मरूस्थल तपते
सूरज से अग्नि की बरसात होती
देखी कितनी ही बार
बहुत बार देखा
खौलता समुद्र
भाप बनकर उड़ता हुआ
देखे ज्वालामुखी
पृथ्वी की पथरीली तह तोड़कर
बाहर निकलते
रेत
मिट्टी
पानी
हवा
सब देखे मैंने
तपन के अंतिम छोर पर
लेकिन
तुम्हारी देह को छुआ जब
महसूस हुआ तब
कि कहीं नहीं तपन इतनी
तुम्हारी काँची देह जितनी
रेत
न मिट्टी
पानी न हवा
कहीं कुछ नहीं तपता
तुम्हारी देह से ज़्यादा ।
मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा