तुम्हारी प्रेम कचहरी और तुम्हारी टिकुली / दयानन्द पाण्डेय
टपकते महुए और पकती-लचकती शहतूत की तरह
सहजन के किसी अनाम फूल की तरह
मासूम टिकोरे में तब्दील होती
आम्र मंजरियों की मदमाती मनुहार
और उस की बेसुध सुगंध की तरह
लगी हुई है तुम्हारी प्रेम कचहरी
इस चैत के महीने में
इस प्रेम कचहरी बीच ही
जाने क्या टेरती हुई गा रही है कोयल
कि कुछ हेर रही है वह वियोग में
क्या उस की भी टिकुली हेरा गई है
यह ऐन चइत में
तुम्हारी टिकुली भी क्यों हेरा जाती है
कभी ड्रेसिंग टेबिल के शीशे पर, कभी बाथ रूम के शीशे पर
तो कभी बेड के सिरहाने, कभी किचेन की दीवारों पर
कभी यहां,कभी वहां चिपकाती घूमती फिरती हो
और फिर जहां-तहां ढूंढने लग जाती हो
जैसे अपनी गायकी में हेरती हैं निर्मला देवी मोतिया
और देवरा से पूछते ही लजा जाती हैं
फागुन क्या कम पड़ जाता है
यह लजाने, हेरने और मनुहारने के लिए
जो चइत में भी चुनरी रंगा कर पहनने के लिए
हुमक-हुमक जाती हो
पलाश क्या कम पड़ जाता है कि टेसू
कि यह तुम्हारा जोगी
यह देखो गुलमुहर भी अंकुआ कर
अब लाल-लाल होना चाहता है
उस को ओढ़ लो
ऐसे जैसे वृक्ष और धरती इसे ओढ़ कर
एक साथ लाल हो जाते हैं
ऐसे जैसे तुम्हारी टिकुली तुम्हारे माथे पर
तुम्हारे प्रेम की कचहरी में
तुम्हारी पैरवी करता हुआ मैं
एक वकील की तरह नहीं
एक मुलजिम की तरह पेश हूं
इस दुनिया को हाजिर-नाजिर मान कर
कि तुम्हारी टिकुली तो हमारे पास है
और कि ऐसा लासा भी जो जल्दी छूटे नहीं
ऐसे जैसे कटहल का लासा नहीं छूटता
[5 अप्रैल, 2015]