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तुम्हारी बेसुधी / शैलजा पाठक
Kavita Kosh से
आती है तुम्हारे होने की गंध
रात के तीसरे पहर में
मेरी देह पर
उगते हैं तुम्हारे नाख़ून
टीसते जख्म को सुलाती हूं
पलकों के किवाड जोर से लगाती हूं
रौदें सपनों को
सहला जाती है भोर की ओस
मैंने पहन लिया है नया सवेरा
तुम रोज जैसे बेसुध हो अबतक...