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तुम्हारी मुस्कुराहट के असंख्य गुलाब / शैलेन्द्र

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महामानव
मेरे देश की धरती पर
तुम लम्बे और मज़बूत डग भरते हुए आए
और अचानक चले भी गए !

लगभग एक सदी पलक मारते गुज़र गई
जिधर से भी तुम गुज़रे
अपनी मुस्कुराहट के असंख्य गुलाब खिला गए,
जिनकी भीनी सुगन्ध
हमेशा के लिए वातावरण में बिखर गई है !

तुम्हारी मुस्कान के ये अनगिनत फूल
कभी नहीं मुरझाएँगे !
कभी नहीं सूखेंगे !

जिधर से भी तुम गुज़रे
अपने दोनों हाथों से लुटाते चले गए
वह प्यार,
जो प्यार से अधिक पवित्र है !
वह ममता,
जो माँ की ममता से अधिक आर्द्र है !
वह सहानुभूति,
जो तमाम समुद्रों की गहराइयों से अधिक गहरी है !
वह समझ,
जिसने बुद्धि को अन्तरिक्ष पार करने वाली
नई सीमाएँ दी हैं !

अच्छाई और बुराई से बहुत ऊपर
तुम्हारे हृदय ने पात्र-कुपात्र नहीं देखा
पर इतना कुछ दिया है इस दुनिया को
कि सदियाँ बीत जाएँगी
इसका हिसाब लगाने में !
इसका लेखा-जोखा करने में !

तुमने अपने आपको साधारण इनसान से
ऊपर या अधिक कभी नहीं माना ।
पर यह किसे नहीं मालूम
कि तुम्हारे सामने
देवताओं की महानता भी शरमाती है !
और अत्यन्त आदर से सर झुकाती है !

आनेवाली पीढ़ियाँ
जब गर्व से दोहराएँगी कि हम इनसान हैं
तो उन्हें उँगलियों पर गिने जाने वाले
वे थोड़े से नाम याद आएँगे
जिनमें तुम्हारा नाम बोलते हुए अक्षरों में
लिखा हुआ है !

पूज्य पिता,
सहृदय भाई,
विश्वस्त साथी, प्यारे जवाहर,
तुम उनमें से हो
जिनकी बदौलत
इनसानियत अब तक साँस ले रही है !

1964