तुम्हारी मुहब्बत का जहाँपनाह होना चाहता हूँ / दयानन्द पाण्डेय
मजनू नहीं, रांझा नहीं, शाहजहाँ होना चाहता हूँ
तुम्हारी मुहब्बत का जहांपनाह होना चाहता हूँ
पहाड़ों में बर्फ़ गिरती है, मचलते रोज हैं बादल
तुम्हारे प्यार के जंगल में गजराज होना चाहता हूँ
प्यार की काशी में पूछते फिरते हैं बादल तुम्हारा ही पता
उसी काशी में बरखा की पहली बौछार होना चाहता हूँ
धरती, वृक्ष, चांद, यह आकाश के जगमग सितारे
मैं तुम्हारे प्रेम से जगमग नदी की धार होना चाहता हूँ
नदी की हर मचलती धार में मिलती धड़कन तुम्हारी
इस धार में बसे वृंदावन का वंदनवार होना चाहता हूँ
पसंदीदा ठंड का मौसम है, रजाई है, आग है, तुम भी
इसी लिए अब सर्दियों की मीठी धूप होना चाहता हूँ
हमारे खेत के मेड़ पर बिछी है तेरे क़दमों की हर आहट
प्यार के फागुन में खिल कर कचनार होना चाहता हूँ
आते-जाते ही राह बनती है मन की कच्ची मिट्टी पर
इस महकती मिट्टी की पुकार हर बार होना चाहता हूँ
प्रेम का आकाश और धरती हर इच्छा से बड़ी है
प्यार के चांदनी की प्रथम मनुहार होना चाहता हूँ
लोग देख लेंगे, क्या कहेंगे, तोड़ दो यह सारी वर्जनाएँ
प्यार की अजान और नमाज सरे राह पढ़ना चाहता हूँ
दीवारों में चुना जाऊँ या किसी किले में कैद हो जाऊँ
तुम्हारी पाकीज़ा रूह की झंकार होना चाहता हूँ
तुम्हारे हुस्न की दीवानगी मार ही डालेगी किसी रोज
तुम्हारी खूबसूरत मांग का चटक सिंदूर होना चाहता हूँ