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तुम्हारी याद ख़्वाबों की खुली खिड़की से आती है / रंजना वर्मा
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तुम्हारी याद ख़्वाबों की खुली खिड़की से आती है
चली आती कभी भी है मगर सहमी-सी आती है
कहाँ पर आशियाना है परिन्दे से ज़रा पूछो
चहकने की ये बोली कौन-सी डाली से आती है
कहीं बजती है शहनाई जनाज़ा है कहीं उठता
कसक पर दर्दे दिल की तो हरिक सिसकी से आती है
भुलाना है कहाँ आसान बिछुड़े हमसफ़र का यों
तुम्हारी याद की खुशबू मेरी हिचकी से आती है
लगो हँसकर गले अब आज तो रुखसत मुझे कर दो
मुहब्बत की महक केवल वफ़ादारी से आती है
गये घर छोड़ जो अपना कमाने के लिये बाहर
कहो उन से तसल्ली तो फ़क़त रोटी से आती है
पसारे पाँव दहशत ने वहाँ पर मौत है बैठी
हुआ मातम तड़पती आह उस बस्ती से आती है