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तुम्हारी रसवंती चितवन / ललित मोहन त्रिवेदी

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तुम्हारी रसवंती चितवन !
और मदिर हो गई चाँदनी घूंघट से छन-छन !!

झरे मकरंद, छंद, सिंगार,
अलस, मद, मान और मनुहार
हो गया चकाचौंध दरपन !
तुम्हारी .................

चुभी तो नयन नीर भर गई
झुकी तो पीर-पीर कर गई
उठी तो तार-तार था मन
तुम्हारी ................

सजीली ज्यों काशी की भोर
हठीली हुई बनी चित्तौर
और गीली तो बृन्दावन
तुम्हारी ..................

लजीली हुई बनीं निर्झर
पनीली तो अथाह सागर
और सपनीली तो मधुवन
तुम्हारी ...................

हुआ क्या मुझे पहुँच मझधार ,
कि लगने लगी बोझ पतवार
भँवर में इतना आकर्षण ?
तुम्हारी ..................

कभी झिलमिल, झिलमिल, झिलमिल
कभी खिलखिल, खिलखिल, खिलखिल
कभी फ़िर छूम, छनन, छन-छन
तुम्हारी .......................