तुम्हारी लपटोंवाली आग,
बनी मेरे अन्तर का राम।
हृदय की मेरी दीर्ण दरार,
तुम्हारा लावमय उद्गार,
निकलते जिससे बारम्बार,
उबलते हुए बुलबुले झाग।
उफन कर मिलन-लगन का ज्वार,
काँपता नील गगन का तार,
गई बन पवन-पटल के पार,
छन्द में मेरी व्यथा विहाग।
न लगता प्रिय गुलाब का हास,
भ्रमर का होता जिस पर रास,
न भाती पारिजात की वास,
तुम्हारा ऐसा गन्ध-पराग।
(5 जनवरी, 1974)