तुम्हारी शपथ मैं तुम्हारा नहीं हूँ / बलबीर सिंह 'रंग'
तुम्हारी शपथ मैं तुम्हारा नहीं हूँ
भटकती लहर हूँ, किनारा नहीं हूँ।
तुम्हारा ही क्या मैं नहीं हूँ किसी का,
रहेगा मुझे अन्त तक दुख इसी का।
किया एक अपराध मैंने जगत मैं-
नहीं जिसका कोई हुआ मैं उसी का।
अब आगे मैं कुछ नहीं जानता हूँ,
अभी तक तो जीवन से हारा नहीं हूँ।
किसी को न कुछ दे सकी चाह मेरी,
प्रलय भी नहीं ले सकी थाह मेरी।
किसी के चरण चिन्ह मैंने न खोजे,
जहाँ पग बढ़े बन गई राह मेरी।
न जाने कहाँ से कहाँ पहुँच जाऊँ,
निराश्रित पथिक हूँ, सहारा नहीं हूँ।
तुम्हारी शपथ मैं तुम्हारा नहीं हूँ।
लुटाऊँ वृथा कल्पना-कोष कब तक,
दबाऊँ हृदय का असंतोष कब तक।
इसी भाँति धोता रहूँ आँसुओं से,
समय की दया दृष्टि का दोष कब तक।
निठुर देवता की, अमर आरती पर-
चढ़ाया गया हूँ, उतारा नहीं हूँ।
तुम्हारी शपथ मैं तुम्हारा नहीं हूँ
भटकती लहर हूँ, किनारा नहीं हूँ।