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तुम्हारी सावधानियाँ मेरी शर्म का बायस हैं / अशोक कुमार पाण्डेय

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कौन सा होता है वह क्षण जब दस साल की बच्ची सावधान औरत में बदलने लगती है?
कपड़े ख़रीदते समय से गौर से देखने लगती है गले की गहराई
क़दमों की बेख़याली कम होने लगती है धीरे-धीरे
व्याकरण कसने लगता है भाषा की गर्दन.

मैं एक बच्ची की ओर नेह भरी नज़र से देखता हूँ और वह डर जाती है
मैं एक बच्ची को गोद में लेना चाहता हूँ और वह डर जाती है
मैं एक बच्ची से नाम पूछता हूँ और वह डर जाती है
मेरा होना उसके जीवन में डर का होना है

अपराधों का अनगढ़ कोलाज लगते हैं अख़बार
बलात्कार किसी सस्ते गाने के मुखड़े की तरह दुहराया करते हैं चैनल
यह कैसी दुनिया बनाई है हमने जहाँ डर जोड़ता है हमें?

दोस्त बनने की तमाम असफल कोशिशों के बाद
मैं एक बेटा हूँ, पति और पिता
शब्दों से खेलता हुआ उदास मैं उनकी दुनिया में रहता हूँ
अचानक आ गए अजनबी की तरह देखता हूँ उनकी चुप्पियाँ
और सावधानियों से शर्मिन्दा होता हूँ

मेरी शर्म उन्हें विस्मित करती है
और भूख द्रवित
क्या आश्चर्य कि भूख और शर्म दोनों स्त्रीलिंगी हैं?