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तुम्हारी ही तरह सो नहीं पाता हुसैन सागर / राजेश्वर वशिष्ठ

कोहरे से ढ़का है हुसैन सागर इतनी देर तक
लगता है उसे भी तुम्हारी ही तरह
रात बहुत कम नींद आई ।

एक अजीब तरह की उदासी
बिखरी है इन दरख़्तों पर
बहुत कम हरितिमा
चिपकी है इनके पत्तों पर
लगता है तुम्हारी ही तरह
रातों में जागते रहते हैं ये दरख़्त ।

ख़ामोशी से देख रहा हूँ
झील की आँखों में
पर समझ नहीं पा रहा हूँ उसका मन
वैसे ही थक कर बैठ जाता हूँ
किसी असफल तैराक-सा
तुम्हारी झील-सी आँखों के
काजल सने कोरों पर ।

दोस्त, ये बादल, ये दरख़्त,
सूरज और झील
तुम्हारी ही तरह इतनी बेरुखी से
क्यों पेश आते हैं मेरे साथ ?

अपने धड़कते दिल से
बार-बार पूछता हूँ यह सवाल।

कहीं तुम्हारी ही तरह
मैं इन्हें भी प्यार तो नहीं करने लगा ?