कोहरे से ढ़का है हुसैन सागर इतनी देर तक
लगता है उसे भी तुम्हारी ही तरह
रात बहुत कम नींद आई ।
एक अजीब तरह की उदासी
बिखरी है इन दरख़्तों पर
बहुत कम हरितिमा
चिपकी है इनके पत्तों पर
लगता है तुम्हारी ही तरह
रातों में जागते रहते हैं ये दरख़्त ।
ख़ामोशी से देख रहा हूँ
झील की आँखों में
पर समझ नहीं पा रहा हूँ उसका मन
वैसे ही थक कर बैठ जाता हूँ
किसी असफल तैराक-सा
तुम्हारी झील-सी आँखों के
काजल सने कोरों पर ।
दोस्त, ये बादल, ये दरख़्त,
सूरज और झील
तुम्हारी ही तरह इतनी बेरुखी से
क्यों पेश आते हैं मेरे साथ ?
अपने धड़कते दिल से
बार-बार पूछता हूँ यह सवाल।
कहीं तुम्हारी ही तरह
मैं इन्हें भी प्यार तो नहीं करने लगा ?