तुम किसी शरद रात की
वो मीठी मद्धम रोशनाई थे
जिसके सहारे कोई बेघर आदमी
काट सकता है एक लंबी शीतल रात्रि
ये मुमकिन था तुम्हारे वास्ते मैं
इंतज़ार को जीवन पर्याय बना देती
उम्मीदों के दियों को जलाकर
मैं अपनी आत्मा को पत्थर बना लेती
हमारे दुख, हमारे चाँद की तरह साझे थे
प्रेम को खो देने वाले हम भी दो अभागे थे
चमक चाँदनियों से कैसे होता रोशन जीवन
जब भाग्य हमारे भू गर्भ से स्याह गाढ़े थे
ये किसी हवा के अभाव से
होने वाली बेचैनी नही थी
ये किसी के नज़रों से
दूर हो जाने की बैचेनी थी
निपट अकेला आदमी
जब याद करता है कभी बैठकर
निपट अकेली ज़िन्दगी के बारे में
तो रात भर सो नहीं पाता
दुख जब आकर थम जाता है
कंठ में बर्फ सा सख्त
तो इंसान न बोल पाता है कुछ
ज़ार ज़ार भी फिर रो नहीं पाता
तुम्हारा साथ चाँद की तरह था
साथ चला, लेकिन बहुत दूर कहीं
ये मेरी पीड़ाओं की सघनता ही थी
जो आँसुओं की तरलता में बहती ही रही
जो तुम्हारे अभाव वाली
हवा, पानी, रोटी से जिंदा रह जाये
मेरे साहेबान! मेरी देह उस मिट्टी से बनी ही नहीं।