तुम्हारे आने से मंज़र का यूँ बदल जाना / रमेश तन्हा
तुम्हारे आने से मंज़र का यूँ बदल जाना
नये क़रीने में हर शय का खुद ही ढल जाना।
तकल्लुफात सब अपनी जगह मगर फिर भी
जो दिल को तोड़ के जाना ही है, तो कल जाना।
जो बात मैं किसी सूरत भी कह न सकता था
लबों से मेरे उसी बात का फिसल जाना।
चमकते दिन में ठहरना न दिल किसी शय पर
अंधेरी रात में जुगनू से जी बहल जाना।
तुम्हारे रूप के सौन्दर्य की तमाज़त से
मिरे वजूद का सर ता क़दम पिघल जाना।
ज़रा सा पा के इशारा लबों की जुम्बिश से
बिला-सबब दिले-बेताब का मचल जाना।
अंधेरी रात में तन्हाइयों के जंगल में
खुद अपने दिल की ही आवाज़ से दहल जाना।
यह दौर वो है कि मेहमां का कह के फिर जाना
है ऐसे जैसे किसी हादिसे का टल जाना।
कि जैसे दोस्त हो कब से मिरा, मिरे घर में
वो उसका खैर से आ जाना, मुझ को छल जाना।
निकलना घर से न बाहर किसी भी क़ीमत पर
मगर जो आ पड़े खुद पर तो सर के बल जाना।
भरे-दवार में अंजान बन के रहना, मगर
खुद अपनी जुस्तजू में दूर तक निकल जाना।
कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनको अच्छा लगता है
अना के गुम्बदे-बे-दर में सड़ना, गल जाना।
है क्या हयात के सहरा में, ज़िन्दगी का सफ़र
बिसात-ए-वक़्त पे दम लेना, पल दो पल, जाना।
न जाने क्यों तुझे सूरत की फ़िक्र है 'तन्हा'
खुद अपनी आग में, इशरत है उसकी, जल जाना।