तुम्हारे क़स्र-आज़ादी के मेमारों ने क्या पाया / फ़ारूक़ बाँसपारी
तुम्हारे क़स्र-आज़ादी के मेमारों ने क्या पाया
जहाँ-बाज़ों की बन आई जहाँ-कारों ने क्या पाया
सितारों से शब-ए-ग़म का तो दामन जगमगा उठा
मगर आँसू बहा कर हिज्र के मारों ने क्या पाया
नक़ीब-ए-अहद-ए-ज़र्रीं सिर्फ़ इतना मुझ को बतला दे
तुलू-ए-सुब्ह-ए-नौ बर-हक़ मगर तारों ने क्या पाया
जुनूँ की बात छोड़ों इस गए घर का ठिकाना क्या
फ़रेब-ए-अक़्ल ओ हिकमत के परस्तारों ने क्या पाया
सर-अफ़राज़ी मिली अहल-ए-हवस की पारसाई को
मगर तेरी मोहब्बत के गुनहगारों ने क्या पाया
खिलौने दे दिए कुछ आप ने दस्त-ए-तमन्ना में
ब-जुज़ दाग़-ए-जिगर आईना-बरदारों ने क्या पाया
मिली सर फोड़ते ही क़ैद-ए-हस्ती से भी आज़ादी
रूकावट डाल कर ज़िंदाँ की दीवारों ने क्या पाया
हमारे सामने ही बैठ कर ‘फ़ारूक़’ मसनद पर
हमीं से पूछते हो फिर कि ग़द्दारों ने क्या पाया