भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम्हारे गालों पे तिल पहले भी था / तारा सिंह
Kavita Kosh से
तुम्हारे गालों पे तिल पहले भी था
मगर तब इतना कातिल न था
ये आज इसे क्या हो गया
जालिम तो था, जाहिल न था
पूछता था हाल-ए-दिल मेरा, जब मैं
किस्सा-ए-दिल बताने के काबिल न था
बहरे-जहां में, तबाह कश्ती-ए-उम्र के
भंवर बहुत थे, कोई दामने-साहिल न था
बेताबी-ए-दिल ले गई मुझको तेरे कूचे में
मन मेरा इसमें शामिल न था