भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारे जाने पर/ नवनीत पाण्डे

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हारे जाने पर
कुछ घण्टे रोएं हम
तुम्हारी अंतिम यात्रा में
कुछ बातें भी की तुम्हारी
तुम कितने अच्छे थे, सब की इज्ज़त करते थे,
सब से प्यार से मिलते थे,
अभी उम्र ही क्या थी तुम्हारी
पर कहते हैं न!
जिनकी यहां जरूरत होती है
उनकी वहां भी जरूरत होती है
उसके आगे किसका ज़ोर?
हमारे एक मिलनेवाले थे
रात को अच्छे-भले सोए थे
सुबह जागे ही नहीं
एक परिचित तो ज़नाब
बातें करते- करते ही................
बच्चे छोटे हैं! भगवान ही मालिक है अब तो!
जितने मुंह, उतनी बातें
(और कितना समय लेगी देह
राख होने में,
पूरा दिन ही खराब हो गया आज तो)
जितने मन, उतनी सोच
स्मरण करते हुए तुम्हारी स्मृतियों को
प्रकट करेंगे कुछ देर दुःख
मनाएंगे कुछ दिन षोक
और फिर तुम्हारी ही तरह
चिर- निद्रा में सो जाएगी एक दिन
तुम्हारी अनुपस्थित- उपस्थिति
फिर-
 वही सुबह, दोपहर, शाम, रात के
 अनंत चक्र में
चलते जाएंगे हम
इस देह- प्राण का
आखिर क्या है
इस धरती पर
 क्रम- अक्रम
कभी जान पाएंगें हम?